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मन वचन काय त्रय जोग इक ठाम करि आप शुध ध्याय पर भाव त्यागे।
तथा देव अरिहन्त, परमेष्ठि सिध के गुण, तनी मान शुभ भाव लागे। रोक चित्त मृग शुभ ध्यान जाली विर्षे एकथल राखि शिव ठांहि आने।
जीयको धीर व्रतधार आचार्य हैं, नमों तिनचरनफल पाप भाने।। ॐ ह्रीं ध्यानतपः सहिताचार्यपरमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
कहे तप अन्तर बाहिर करो द्वादश, धीर तन त्याग बिन राग ध्यावें,
जीव रागी विषं, चाह ताकी रहे, सो नवों इन दसी भाव ल्यावे। यह जानि रागी, बिना राग की परीक्षा ठानि, तप धारिते, धीर आने। जीय को धीर व्रत धार आचार्य हैं, नमों तिन चरण फल पाप भाने।। ऊँ ह्रीं द्वादशतपः सहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
षट् आवश्यकों का वर्णन
पद्धरि छन्द जे षट् आवशि धारें सदीव, ते शुद्ध सरूपी होंय जीव।
गुणधारि जारि कर्माष्ट वीर, निज तिरें और तारक सुधीर।। ऊँ ह्रीं षडावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
सब जीव सुत्रस, थावर सुजान, समभाव सकल पै चित्त ठान।
तजि आरत रौद्र सुभाव सोय, ममता सामायिक सुखद होय।। ऊँ ह्रीं सामायिकावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अरिहन्त सिद्ध आदिक महंत, तिनकी थुति निज मुनि वर करंत।
उर निर्मल करि शुध भाव ठान, ता फल पावे शिव लोक थान॥ ॐ ह्रीं स्तवनावश्यकसहिताचार्य परमेष्ठिभ्यः अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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