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(पद्धरि छन्द) जय मेरुवृक्ष भूपति बखान, सब वृक्षानि में नृप-सम सुजान। जय सुर-नर लख नाचत प्रवीन, जय तसु वर्णन भाषों नवीन।।
जय शोभा वृक्ष-तनी अपार, ऊपर जैसी ही कही सार। जय वृक्ष सु चरों दिश-प्रमान, जिनभवन सु चार कहे बखान।। जय गन्धकुटी शोभे अनूप, जय जगमगात रवि ज्योतिरूप। जय सिंहासन शोभे सु तीन, जय तापर कमल रचो नवीन।। जय तापर प्रतिमा एक जान, श्री सिद्धस्वरूप तनी बखान।
जय तीन छत्र शोभे महान् जय चमर ढुरें आनन्द-खान।। जय तिन द्युति उज्ज्वल जगमगात, मानो दुग्धोदधि लहलहात। जय सुर-नर पूजा करत गाय, जय वसुविध द्रव्य सु ले चढ़ाय।।
जय अध्य देत आनन्द पाय, जयमाल पढ़त हरषात अघाय। जय फिर सुर नृत्य करें बनाय, ता-थेई थेइ-थेइ जिनगुण सु गाय।
जय बाजत बीन-मृदंग साज, सुरताल लिये मुहचंग बाज। जय नाचत प्रभुगण मनविचार, झम-झमकि चाले थई-थई सु धार।। ___ जय फिर परदक्षण देहिं तीन, चारों जिनमन्दिर की प्रवीन।। जय फिर-फिर प्रभु को दरश सार, नयनन भरि निरखत हर्ष धार।। जय जिनथुति फिर मुखतें उचार, जय-जय जिन जगतें करहु पार।
जय सुर वरषावत सुमनसार, गन्धोदक बरषा हृदय धार।। जय रतनधार बरषे विशाल, जय जगमग नभ दीखे सु लाल। जय दुन्दुभि-बाजे बजे धीर, तिनकी धुनि सुन सुर नचें वीर।। जय ता आगे जानी सु सार, जय मानस्तम्भ हृदय विचार।
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