________________
कल्पवृक्ष दशभेद बने चित्राम जू, कहूं स्वर्ग 'सौधर्म' महा अभिराम जू। दूजो लख ‘ईशान' सहज सुखकार जू, 'सनतकुमार - महेन्द्र' स्वर्ग ये चार जू।। दो-दो बीच विचार खड़े सुखकार जू, सेवें देवी- देव परम मुद-धार जू। तिनको वर्णन सार विशेष सु जानये, परम-ग्रंथ-सिद्धान्तसार' से जानिये। ऐसे-मानस्तम्भ ‘छत्र’ शिर तीन जू, सिंहासन जिनबिम्ब विराजत तीन जू रतनन की जंजीर मंजूषा लटकते, तिन मंजूषाविषै सु भूषण मटकते।। तिनमें तीर्थंकर होवत हैं सुखकार जू, इन्द्राणी आभूषि-वस्त्र निहार जू पहिरावत जिनराज हरष उरधारके, श्री जिनरूप - निहार सु नैन विचारके। ऐसे भी चित्राम बने तहाँ जानिये, नानाविध सुखकार हरष उर-आनिये।। ऊँ ह्रीं पंचमभूमौ प्राक्चतुःस्वर्गमध्य-मानस्तम्भे सुन्दरवस्त्राभूषियुक्तमंजूषाद्वययुक्तसमवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कहुँ सागर के बीच से पर्वत जानिये, बनी कुभोग सु भूमि तहाँ परमानिये । तहँ के होहैं मानुष-मुख ऐसे बने, हाथी-घोड़ा-मेढ़ा - बैल गिनो घने। इन आदिक चित्राम सु वेदी कोटमें, बने सरस सुखकार सु झलके ओटमें। वेदी कोट विशाल सु ऊपर जानिये, बने कंगूरा - गुरज परम परमानिये। ऊँ ह्रीं पंचमभूमौ वेदिकाशालकंगूरागुरजादिसंयुक्त-समवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बनी बैठकें तिहरीं ऊपर पेखिये, तिन में चित्र विशाल बने तहँ देखिये। कलशाध्वजा विशाल सु लहकें सारजू, बैठत देवी-देव सु मुख जयकार जू।। ऊँ ह्रीं पंचमभूमौ कोटशालवेदिकोपरि देवी-देवयुक्तत्रितल-विष्टसंयुक्तसमवसरणस्थितजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
1249