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जय नाना मणिमय शोभकार राजत सो मानस्तम्भ सार।। ता मूल सु चारों दिश निहार जिन-प्रतिमा सोहैं परम सार। सुरगण पूजत जय-जय उचार नाचत सा थेइ-थेइ हरष-धार।। वसु प्रातिहार्य राजत सु पर्म जय देखि तिन्हें नाशें जु कर्म। जय पंच रतनमय अति सुरंग जय मानस्तम्भ दिपै अभंग।। जय मानो मान रहे न कोय जय मानस्तम्भ विलोक सोय। जय मानीजन सब मान छोड़ देखत नावत शिर हाथ-जोड़।।
जय तासें मानस्तम्भ नाम पायो सुन्दर शोभाभिराम। नव सै नब्बे वसु धनुष लीन चौड़ाई गनि लीजो प्रवीन।। छह सहस धनुष ऊँची प्रमान, बारह जोजनौं लखे जान।
जय ऐसे मानस्तम्भ सार जय चार दिशा आनन्दकार।। ताके चहुँदिश वापी सु चार, जय एक दिशा में एक सार। यह उज्ज्वल जल में कमल खिले जय मानो भू के ही नैन खुले।
जिन राजविभव दुखन जु सार धारें बहु नैन किये सिंगार। तिन कमलन पर अलि रहे छाय मानों भू दृग में अंजन लगाय।। जय चारों दिश सोलह प्रमान 'नन्दोत्तर' आदिक नाम जान।
जय मणिमय पैड़ी लसें सार जय हंसचक्र नाचत सुधार। जय तिनको उज्ज्वल जल सु लाय जय पूजत भवि जिनराज-पांय।। जय तिनके पास सु कुण्ड दोय कंचन-मणि जड़ित-विलोकि लोय।
जै श्रीजिनवर-पूजन सु जाँय ते पग धोवत आनन्द पाँय। इक वापी-संग कहे सु गाय दो कुण्ड जान मणिमय सुहाय।। जग जग इह वर्णन करो सार कवि कौन लहै जिन-विभव-पार। पूरबदिश वर्णन कियो एम दक्षिण-दिश लखियो भव्य तेम।।
पश्चिम-उत्तर यों ही बखान चहुँदिश चहुँ मानस्तम्भ जान। पर तुच्छबुद्धि कवि 'लाल' पाय जै-जै-जै-जै जिनमाल गाय।।
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