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(दोहा छन्द) ऐसी बैठक में जहाँ देवी-देव निहार। नर-नारी जिनराज के वर-गुण गावें सार।। ऊँ ह्रीं पूर्वोक्त-शोभासम्पन्नविष्ठरेषु देवी-देव-नर-नारीकृत जिनराज-गुणगानसंयुक्ते समवसरणे
स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल छन्द) उपजे नाहीं खेद सिवानों पर चढ़ें, छिनकमाँहि चढ़ जाये सु जिन-अतिशय बढ़ें।
___ इन्द्रनीलमणि गोल सिला तहँ देखिये, वृषभदेव के बारह योजन पेखिये। ऊँ ह्रीं जिनातिशयतः यत्सोपानानिखेदं बिना क्षणमात्रचटनसमर्थानि एवम्भूतनीलमणिनिर्मित द्वादशयोजनवर्तुलशिलासंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
तेईस के क्रम-हानि जान लीजो सही, समवसरण की रचना ता-ऊपर कही। निर्मल शिला विशाल चमक बहु तास में, सब विभूति प्रतिबिम्बित दीसत जास में।। ऊँ ह्रीं अन्तिममत्रयोविंशतितीर्थकराणाम् उत्तरोत्तर-हीनरचनापरिमाण-विशिष्टशिलासंयुक्ते
समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समवसरण को विभव घेरकर जो रह्यो, धूलीसाल सु कोट परम सुन्दर कह्यो। मानों ‘मानुषोत्र' गिरि मन हरषाय के, सेवत जिनके चरणु से आपहिं आय के।। ऊँ ह्रीं धूलिसालदुर्गसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय जिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचवरन के रतन चूरकर जो बनों, इन्द्रधनुष की कान्ति धरे सुन्दर मनों। कहुँ श्याम कहुँ हरित झलक पन्ना जिसी, कहुँ कंचन कहुँ विद्रम हीरा-द्युति तिसी।। ऊँ ह्रीं पंचविधचूर्ण-निर्मित-गगनविसारिज्योतिर्युक्त-धूलिसाल-दुर्गसंयुक्ते समवसरणे स्थिताय
जिनेन्द्राय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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