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________________ पारसनाथ अनाथनिके हित, दारिदगिरिकों वज्रसमान। सुखसागर-वर्द्धन को शशिसम, दव-कषयको मेघमहान।। तिनको पूजे जो भविप्रानी, पाठ पढ़े अतिआनन्द आन। सो पावे मनवांछित सुख सब, और लहे अनुक्रमनिरवान।। 17॥ इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिं क्षिपेत्। श्री महावीर जिन-पूजा मत्तगयन्द छन्द श्रीमत वीर हरें भव-पीर, भरें सुख-सीर अनाकुलताई, केहरि-अंक अरीकरदंक, नये हरि - पंकति - मौलि सुआई । मैं तुमको इत थाप हौं प्रभु, भक्ति समेत हिये हरषाई, हे करुणा-धन-धारक देव इहाँ अब तिष्ठहुँ शीघ्रहि आई ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। (इति आह्वाननम् ) ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । (स्थापनम् ) ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (सन्निधिकरणम्) अष्टक क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन-भृंग भरों, प्रभु वेग हरो भव-पीर, यातैं धार करों । श्रीवीर महा अतिवीर सन्मति नायक हो, जय वर्द्धमान गुण-धीर सन्मति - दायक हो ॥ ॐ ह्रीं श्रीमहावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । 1181
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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