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जबलों शिव-सम्पति लहों नाहिं, तबलों मैं इनको नित लहाँहि। यह अरज हिये अवधारि नाथ, भवसंकट हरि, कीजे सनाथ।14।
(छंद-घत्तानंद) जय दीनदयाला, वर-गुनमाला, विरदविशाला सुख-आला।। मैं पूजों ध्यावों शीश नमावों, देहु अचल-पदकी चाला।15। ऊँ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
(छंद-रोड़क) कुंथु जिनेसुर पादपद्म जो प्रानी ध्यावें। अलि-सम कर अनुराग, सहज सो निज-निधि पावें।।
जो बांचे सरधहें, करें अनुमोदन पूजा। 'वृन्दावन' तिंह पुरुष-सदृश, सुखिया नहिं दूजा।
इत्याशीर्वादः, परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
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