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जो श्रीपति-पद-जुगल, उगल मिथ्यात जजे भव। ताके दुख सब मिटहिं, लहे आनन्द-समाज सब।। सुर-नर-पति पद भोग, अनुक्रम तैं शिव जावे। 'वृन्दावन' यह जानि धरम जिनके गुन ध्यावे।।
इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
श्री शान्तिनाथ जिनपूजन
या भवकानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरि हमेरी । आतम जानन मानन ठानन, वानन होन दई शठ मेरी ॥ ता मद भानन आपहि हो, यह छानन आन न आनन टेरी । आन गही शरनागत को अब, श्रीपतजी पत राखहु मेरी ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरतु अवतरतु संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठतु तिष्ठतु ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट् ।
अष्टक छन्द त्रिभंगी
हिमगिरि-गतगंगा, धार अभंगा प्रासुक संगा भरि भृंगा, जरजनम-मृतंगा, नाशि अघंगा, पूजि पदंगा मृदुहिंगा । श्रीशान्ति-जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं, चक्रेशं,
हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं दयामृतेशं मक्रेशं ॥
ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
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