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________________ बानी जिन मुखसौं खिरत सार, मनु तत्त्व प्रकाशन मुकुरधार ॥१०॥ जहँ चौसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजसमेघ झरि लगि पतंत । सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, ननु शिवसरवर को कमलशुक्त ॥११॥ ___ दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करम जीत को है नगार। सिर छत्र फिरै त्रय श्वेतवर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण ॥१२॥ तन प्रभातनों मण्डल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात । मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सुआय ॥१३ ॥ इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीखत महिमा महान । ताको वरणत नहिं लहत पार, तौ अन्तरंग को कहै सार ॥१४ ॥ अनअन्त गुणनि-जुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार । फिर जोगनिरोधि अघाति हान, सम्मेद थकी लिय मुक्तिथान ॥॥ 'वृन्दावन' वन्दत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय । तारौं का कहों सु बार-बार, मन वांछित कारज सार-सार ॥१६॥ घत्तानन्द जय चन्द-जिनंदा आनंदकंदा, भव-भय-भंजन राजै हैं। रागादिक-द्वन्द्वा हरि सब फन्दा, मुकति माँहिं थिति साजै हैं । ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा । चौबोला आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचन्द जज। ताके भव-भव के अघ भाजै, मुक्त सारसुख ताहि सजै ॥ जम के त्रास मिटें सब ताके, सकल अमंगल दूर भनें । 'वृन्दावन' ऐसो लखि पूजत, जा शिवपुरि राज रजै ॥ (इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ) 1097
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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