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(गीतिका छन्द)
शिरनाय सुरगण खग नरेश्वर, करें महोत्सव नित नये । परिवार युत भर पुण्यकोष, प्रतच्छ लखि श्री जिन जये।। विहरंत केवल गणधरादिक, करत वर उपदेशते। तहँ सुनहिं अति रुचि धारि-भविजन, त्यागगृहतप करहिं ते ।।3।
(अडिल्ल)
कालचतुर्थम सार, सदा वरते जहाँ । यति श्रावकद्वय धर्म चले शाश्वत वहाँ।। तीर्थाधिप चक्री, हलिहरि प्रतिहरि घने । उपजे पुरुष अनूप, जहाँ शिवमग बने॥4॥
दोहा
जहाँ न मिथ्यामारगी, एक धरम अरिहन्त । इन्द्रादिक आवें जहाँ, करे भक्ति भगवंत॥5॥ भरतैरावत दश विषें, कालचक्र द्वय जोग। तामधि जम्बूद्वीप यह, दक्षिण भरत मनोग।।6।।
(अडिल्ल)
अब इस पंचमकाल, पाय इस क्षेत्र सो । विद्यमान तीर्थंकर, मंगल नाहिं सो।। ताते परम उछाह, सुमन बचसो रचो सिद्धभूमि थल पाय, हरष पूजा सुचो॥7॥ वृषभनाथ जिन आदि, वीर पर्यन्त जी । चौबिस सब इस क्षेत्र, भये भगवन्त जी।। कल्याणक तिन सर्व, पूज्य हरि कर भये । अब सिद्धालयमाहिं, यहाँ जिन पूजिये॥8॥ ऊँ ह्रीं वर्तमानचतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र अवतरतावतरत संवौषटं।
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
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