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दृगौ बुधि सम्यक् चारित-दान, सुलाभ रु भोगुपभोग प्रमाण।
सु वीरज संजुत ए नव जान, अठार छयोपशम इमि मान।9। मति श्रुति अवधि उभे विधि जान, मनःपर्यय चखु और प्रमान। अचक्खु तथाविधि दान रु लाभ, सुभोगुपभोग रु वीरज-साम।10। - व्रताव्रत संजम और सु धार, धरे गुन सम्यक्-चारित सार। भए वसु एक समापत येह, इकीश उदीक सुनो अब जेह।11।
चहुँगति चारि कषाय-तिवेद, छह लेश्या और अज्ञान विभेद। असंजम-भाव लखो इस-माँहिं, असिद्धित और अतत्त कहाहिं।12।
भये इकबीस सुनो अब और, सुभेदत्रियं पारिणामिक ठौर। सुजीवित भव्यत और अभव्व, तिरेपन एम भने जिन सव्व।13।
तिन्हो मँह केतक त्यागन जोग, कितेक गहेंतें मिटें भवरोग। कह्यो इन आदि लह्यो फिर मोख, अनंत गुनातम मंडित चोख।14।
जजौं तुम पाय जपौं गुनसार, प्रभु हमको भव सागर तार। गही शरणगत दीनदयाल, विलम्ब करो मति हे गुनमाल।15।
(घत्ता) जै जै भवभंजन, जन-मनरंजन, दया-धुरंधर कुमतिहरा।
'वृंदावन' वंदत मन-आनन्दित, दीजै आतमज्ञान वरा। ॐ ह्रीं श्री संभावनाथ जिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।16।
(छन्द अडिल्ल) जो बाँचे यह पाठ सरस संभव-तनो। सो पावै धन-धान्य सरस सम्पति घनो।। सकल-पाप क्षय जात सुयश जग में बढ़े। पूजत सुरपद होय अनुक्रम शिव चढ़े।।17॥ ।।इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपामि।।
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