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षटरितु के फूल फले निहार, दिशि-निर्मल जिय आनंद-धार। जहँ शीतल मंद सुगंध वाय, पद-पंकज-तल पंकज रचाय।।7॥ मलरहित-गगन सुर-जय-उचार, वरषा-गन्धोदक होत सार। वर धर्मचक्र आगे चलाय, वसु-मंगलजुत यह सुर रचाय॥8॥ सिंहासन छत्र चमर सुहात, भामंडल - छवि वरनी न जात। तरु उच्च-अशोकरु सुमनवृष्टि, धुनि - दिव्य और दुंदुभी मिष्ट||9|| दृग-ज्ञान-शर्म-वीरज अनंत, गुण-छियालीस इम तुम लहंत। इन आदि अनंते सुगुनधार, वरणत गणपति नहिं लहत पार।।10।।
तब समवसरण-मँह इन्द्र आय, पद-पूजन वसुविधि दरब लाय। अति-भगति सहित नाटक रचाय, ता थेईथेई थेई धुनि रही छाया । । 11 ॥
पग नूपुर झननन झनननाय, तननननन तननन तान गाय। घननन नन नन घण्टा घनाय, छम छम छम छम घुंघरू बजाय॥12॥ दृम दृम दृम दृम दृम मुरज ध्वान, संसाग्रदि सरंगी सुर भरत तान । झट झट झट अटपट नटन नाट, इत्यादि रच्यो अद्भुत सुठाट।।13।। पुनि वंदि इंद्र सुनुति करंत, तुम हो जगमें जयवंत संत। फिर तुम विहार करि धर्मवृष्टि, सब जोग-निरोध्यो परम-इष्ट।।14। सम्मेद-थकी तिय मुकति-थान, जय सिद्ध-सिरोमणि गुणनिधान। 'वृंदावन' वंदत बारबार, भवसागरतें मोहि तार तार ।। 15॥
(छन्द घत्तानंद)
जय अजित कृपाला, गुणमणिमाला, संजमशाला बोधपती । वर सुजस उजाला, हीर हिमाला, ते अधिकाला स्वच्छ अती॥ ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय जयमाला- पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।।
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