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आत्मज्योति से हट गये, तम के पटल महान | प्रकट प्रभाकर-सा हुआ, निर्मल केवलज्ञान || देवेन्द्र द्वारा विश्वहित, सम-अवसरण निर्मित हुआ | समभाव से सबको शरण का, पंथ निर्देशित हुआ || था शांति का वातावरण, उसमें न विकृत विकल्प थे | मानों सभी तब आत्महित के, हेतु कृत-संकल्प थे || ओं ह्रीं चैत्रकृष्ण-चतुर्थीदिने केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।४।
युग-युग के भव-भ्रमण से, देकर जग को त्राण | तीर्थंकर श्री पार्श्व ने, पाया पद-निर्वाण || निर्लिप्त, आज नितांत है, चैतन्य कर्म-अभाव से | है ध्यान-ध्याता-ध्येय का, किंचित् न भेद स्वभाव से||
तव पाद-पद्मों की प्रभु, सेवा सतत पाते रहें | अक्षय असीमानंद का, अनुराग अपनाते रहें || ओं ह्रीं श्रावणशुक्ल-सप्तम्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।५।
वंदना-गीत अनादिकाल से कर्मों का मैं सताया हूँ | इसी से आपके दरबार आज आया हूँ ||
न अपनी भक्ति न गुणगान का भरोसा है | दयानिधान श्री भगवान् का भरोसा है || इक आस लेकर आया हूँ कर्म कटाने के लिये | भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||१|| जल न चंदन और अक्षत पुष्प भी लाया नहीं | है नहीं नैवेद्य-दीप अरु धूप-फल पाया नहीं ||
हृदय के टूटे हुए उद्गार केवल साथ हैं | और कोई भेंट के हित अर्घ्य सजवाया नहीं || है यही फल फूल जो समझो चढ़ाने के लिये | भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||२|| माँगना यद्यपि बुरा समझा किया मैं उम्रभर | किन्तु अब जब माँगने पर बाँधकर आया कमर || और फिर सौभाग्य से जब आप-सा दानी मिला | तो भला फिर माँगने में आज क्यों रक्खू कसर || प्रार्थना है आप ही जैसा बनाने के लिये | भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||३||
यदि नहीं यह दान देना आपको मंजूर है | और फिर कुछ माँगने से दास ये मजबूर है || किन्तु मुँह माँगा मिलेगा मुझको ये विश्वास है | क्योंकि लौटाना न इस दरबार का दस्तूर है ||
प्रार्थना है कर्म-बंधन से छुड़ाने के लिए | भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||४|| हो न जब तक माँग पूरी नित्य सेवक आयेगा | आपके पद-कंज में 'पुष्पेन्दु' शीश झुकायेगा || है प्रयोजन आपको यद्यपि न भक्ति से मेरी | किन्तु फिर भी नाथ मेरा तो भला हो जायेगा || आपका क्या जायेगा बिगड़ी बनाने के लिये | भेंट मैं कुछ भी नहीं लाया चढ़ाने के लिये ||५||
ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। जो पूजे मन लाय भव्य पारस प्रभु नित ही | ताके दुःख सब जाय भीति व्यापे नहि कित ही || सुख-संपति अधिकाय पुत्र-मित्रादिक सारे | अनुक्रमसों शिव लहे, 'रत्न' इमि कहें पुकारे ||
॥इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
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