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प्रभुवर! क्षणभंगुर वैभव को, तुमने क्षण में ठुकराया है | निज तेज तपस्या से तुमने, अभिनव अक्षय पद पाया है || अक्षय हों मेरे भक्ति भाव, प्रभु पद की अक्षय प्रीति मिले |
अक्षय प्रतीति रवि-किरणों से, प्रभु मेरा मानस-कुंज खिले || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
यद्यपि शतदल की सुषमा से, मानस-सर शोभा पाता है | पर उसके रस में फँस मधुकर, अपने प्रिय-प्राण गँवाता है || हे नाथ! आपके पद-पंकज, भवसागर पार लगाते हैं |
इस हेतु आपके चरणों में, श्रद्धा के सुमन चढ़ाते हैं || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।।
व्यंजन के विविध समूह प्रभो! तन की कुछ क्षुधा मिटाते हैं | चेतन की क्षुधा मिटाने में प्रभु! ये असफल रह जाते हैं || इनके आस्वादन से प्रभु! मैं संतुष्ट नहीं हो पाया हूँ |
इस हेतु आपके चरणों में, नैवेद्य चढ़ाने आया हूँ || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
प्रभु! दीपक की मालाओं से, जग-अंधकार मिट जाता है |
पर अंतर्मन का अंधकार, इनसे न दूर हो पाता है || यह दीप सजाकर लाए हैं, इनमें प्रभु! दिव्य प्रकाश भरो |
मेरे मानस-पट पर छाए, अज्ञान-तिमिर का नाश करो || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
यह धूप सुगन्धित द्रव्यमयी, नभमंडल को महकाती है | पर जीवन-अघ की ज्वाला में, ईधन बनकर जल जाती है || प्रभुवर! इसमें वह तेज भरो, जो अघ को ईधन कर डाले |
हे वीर विजेता कर्मों के! हे मुक्ति-रमा वरने वाले || ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
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