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जे प्रधान फल फल विषे, पंचकरण रस-लीन | जा सों पूजौं परमपद, देव-शास्त्र-गुरु तीन ||८||
ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल परम उज्ज्व ल गंध अक्षत पुष्प चरु दीपक धरूँ | वर धूप निरमल फल विविध बहु जनम के पातक हरूँ || इहि भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मयूँ | अरिहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा र ||
__(दोहा)
वसुविधि अर्घ संजोय के अति उछाह मन कीन | जा सों पूजौं परमपद देव-शास्त्र-गुरु तीन ||९||
___ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो अनर्घ्यप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला देव-शास्त्र-गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार | भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुण विस्तार ||१||
(पद्धरि छन्द) कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि | जे परम सुगुण हैं अनंत धीर, कहवत के छयालिस गुणगंभीर ||२|| शुभ समवसरण शोभा अपार, शत इंद्र नमत कर सीस धार | देवाधिदेव अरिहंत देव, वंदौं मन वच तन करि सुसेव ||३|| जिनकी ध्वनि ह्वे ओंकाररूप, निर-अक्षरमय महिमा अनूप | दश-अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सात शतक सुचेत ||४|| सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सु-अंग | रवि शशि न हरें सो तम हराय, सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय ||५|| गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रय निधि अगाध | संसार-देह वैराग्य धार, निरवाँछि तपें शिवपद निहार ||६|| गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस, भव-तारन-तरन जिहाज ईस | गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरुनाम जपने मन वचन काय ||७||
(सोरठा) कीजे शक्ति प्रमान शक्ति-बिना सरधा धरे | ‘द्यानत' सरधावान अजर अमरपद भोगवे ||८|| ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) श्रीजिन के परसाद ते, सुखी रहें सब जीव | या ते तन-मन-वचनतें, सेवो भव्य सदीव ||
॥ इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत्॥
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