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तब शांत निराकुल मानस तुम, तत्त्वों का चिंतन करते हो ||२१||
करते तप शैल नदी-तट पर, तरु-तल वर्षा की झड़ियों में | समतारस पान किया करते, सुख-दुःख दोनों की घड़ियों में ||२२|| ___ अंतर-ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ | भव-बंधन तड़-तड़ टूट पड़ें, खिल जावें अंतर की कलियाँ ||२३||
तुम-सा दानी क्या कोई हो, जग को दे दी जग की निधियाँ | दिन-रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियाँ ||२४|| _हे निर्मल देव! तुम्हें प्रणाम, हे ज्ञानदीप आगम! प्रणाम |
हे शांति-त्याग के मूर्तिमान, शिव-पंथ-पथी गुरुवर! प्रणाम || ओं ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा।
__सिद्ध-पूजा का अर्घ्य जल-फल वसुवृंदा अरघ अमंदा, जजत अनंदा के कंदा |
मेटो भवफंदा सब दुःखदंदा, 'हीराचंदा' तुम वंदा || त्रिभुवन के स्वामी त्रिभुवननामी, अंतरयामी अभिरामी |
शिवपुर-विश्रामी निजनिधि पामी, सिद्ध जजामी सिरनामी || ओं ह्रीं श्री अनाहत-पराक्रमाय सर्व-कर्म-विनिर्मुक्ताय सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने
अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।९।
विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य जल-फल आठों दरव, अरघ कर प्रीति धरी है, गणधर इन्द्रनि हू , थुति पूरी न करी है |
‘द्यानत' सेवक जानके (हो), जग तें लेहु निकार || सीमंधर जिन आदि दे बीस विदेह-मँझार | श्री जिनराज हो, भवि-तारणतरण जहाज (श्री महाराज हो) ||
ओं ह्रीं श्री सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभाननअनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति- वज्रधर -चन्द्रानन-भद्रबाहु-भुजंगमईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-देवयश-अजितवीर्य इति विदेह क्षेत्रे विद्यमान-विंशति-तीर्थंकरेभ्यो नमः अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
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