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समुच्चय पूजा
श्री देव-शास्त्र-गुरु, विद्यमान बीस तीर्थंकर, अनंतानंत सिद्ध-समूह
(दोहा) देव-शास्त्र-गुरु नमन करि, बीस तीर्थंकर ध्याय | सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूं चित्त हुलसाय ||
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र तिष्ठः तिष्ठः ठः! ठः! (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुसमूह! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकर समूह! श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठीसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव! भव! वषट्! (सन्निधिकरणम्)
अनादिकाल से जग में स्वामिन्, जल से शुचिता को माना | शुद्ध-निजातम सम्यक्-रत्नत्रय-निधि को नहिं पहिचाना || अब निर्मल-रत्नत्रय-जल ले, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
__ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्य: श्री अनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।
भव-आताप मिटावन की, निज में ही क्षमता समता है | अनजाने अब तक मैंने, पर में की झूठी ममता है || चंदन-सम शीतलता पाने, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
___ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य:संसारताप-विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।।
अक्षय-पद बिन फिरा जगत की, लख चौरासी योनी में | अष्ट-कर्म के नाश करन को, अक्षत तुम ढिंग लाया मैं || अक्षय-निधि निज की पाने को, श्री देव-शास्त्र-गुरु को ध्याऊँ | विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध-प्रभू के गुण गाऊँ ||
___ओं ह्रीं श्रीदेव-शास्त्र-गुरुभ्यः श्रीविद्यमानविंशति-तीर्थंकरेभ्यः श्रीअनंतानंत सिद्धपरमेष्ठिभ्य:अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।
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