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आतम पवित्र - कारण किमपि, बाल- ख्याल सो जानियो ज्यो सुधार 'भूधर' तणी, यह विनती बुध मानियो ||२७|| (Chappaya chanda)
Ihividhi bud'dhiviśāla rāya bhūpāla mahākavi | Kiyō lalita-thuti-pāṭha hiyē saba samajha sakai navi || Tīkā kē anusāra artha kachu mana mēm āyō | Kahim sabda kahim bhāva jōra bhāṣā jasa gayō || Ātama pavitra-kāraṇa kimapi, bāla-khyāla sō jāniyō | LījyŌ sudhāra ‘bhūdhara’ tanī, yaha vinatī budha māniyŌ ||27||
विषापहार स्तोत्र (हिंदी अनुवाद) Visāpahāra Stotra (hindī anuvāda)
संस्कृत रचना 'विषापहार स्तोत्र' के रचयिता 'महाकवि धनञ्जय' सुप्रसिद्ध द्विसंधान काव्यशैली के कर्ता थे। इस शैली के प्रत्येक पद्य के दो अर्थ होते हैं। पहला रामायण से सम्बन्धित और दूसरा महाभारत से। इसी कारण इस शैली को 'राघव-पांडवीय' भी कहते हैं। 'काव्यमीमांसा' जैसे महान ग्रन्थ के कर्ता राजशेखर ने धनंजय की बड़ी प्रशंसा की है। आपकी एक रचना 'धनंजय नाममाला' एक महत्त्वपूर्ण शब्दकोष है। धनंजय का समय विद्वानों ने आठवीं शताब्दी निश्चित किया है।
इस विषापहार-स्तोत्र में भगवान् ऋषभदेव की स्तुति है। यह स्तुति गंभीर, प्रौढ़ और अनूठी उक्तियों से भरपूर है। यह ग्रन्थ कवि की चतुराई से भरा हुआ है। हृदय-समुद्र को मथकर निकाला हुआ अमृत है। इसमें शब्दों का माधुर्य एवं अर्थों का गांभीर्य देखने को मिलता है। इस काव्य में स्थान-स्थान पर अलंकारों की छटा छिटकी हुई है।
एक बार कविराज धनंजय पूजन में लीन थे। उनके को सर्प ने डस लिया। घर से कई बार समाचार आने पर भी वह निस्पृह-भाव से पूजन में पूर्णतया तन्मय रहे और पुत्र की कोई सुध नहीं ली। बच्चे को विष चढ़ रहा था, उनकी पत्नी ने कुपित होकर बच्चे को मंदिर में उनके सामने लाकर रख दिया। पूजन से निवृत्त होकर उन्होंने तत्काल भगवान् के सन्मुख ही विषापहार - स्तोत्र की रचना की, इधर स्तोत्र की रचना हो रही थी, उधर पुत्र का विष उतर रहा था। स्तोत्र पूरा होते होते बालक निर्विष होकर उठ बैठा। इससे धर्म की अपूर्व-प्रभावना हुई। श्रद्धा और मनोयोग- पूर्वक इसके पाठ से सुख-शांति मिलती है और सारे मनोरथ पूर्ण होते हैं।
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