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________________ (पद्धरि छन्द-मात्रा १६ लघ्वन्त) जय शुद्ध-चिदातम देव एव, निरदोष सुगुन यह सहज टेव । जय भ्रम-तम-भंजन मारतंड, भवि भवदधि-तारन को तरंड ।२। जय गरभ-जनम-मंडित जिनेश, जय छायक-समकित बुद्ध-भेस । चौथे किय सातों-प्रकृति छीन, चौ-अनंतानु मिथ्यात-तीन ।३। सातंय किय तीनों आयु नास, फिर नवें अंश नवमें विलास । तिन-माँहिं प्रकृति-छत्तीस चूर, या-भाँति कियो तुम ज्ञानपूर ।४। पहिले-महँ सोलह कहँ प्रजाल, निद्रानिद्रा प्रचला-प्रचाल । हनि थान-गृद्धि को सकल-कुब्ब, नर-तिर्यग्गति-गत्यानुपुब्ब ।५। इक-बे-ते-चौ-इन्द्रीय जात, थावर आतप-उद्योत घात । सूच्छम-साधारन एक चूर, पुनि दुतिय-अंश वसु को दूर ।६। चौ-प्रत्याप्रत्याख्यान चार, तीजे सु नपुंसक-वेद टार । चौथे तिय-वेद विनाश-कीन, पाँचें हास्यादिक छहों छीन ।७। नर-वेद छठे छय नियत धीर, सातयें संज्वलन-क्रोध चीर । आठवें संज्वलन-मान भान, नवमें माया-संज्वलन हान ।८। इमि घात नवें दशमें पधार, संज्वलन-लोभ तित हू विदार । पुनि द्वादश के द्वय-अंश माँहिं, सोलह चकचूर कियो जिनाहिं ।९। निद्रा-प्रचला इक-भाग-माँहिं, दुति-अंश चतुर्दश नाश जाहिं । ज्ञानावरनी-पन दरश-चार, अरि अंतराय-पाँचों प्रहार ।१०। इमि छय-त्रेशठ केवल उपाय, धरमोपदेश दीन्हों जिनाय । नव-केवल-लब्धि विराजमान, जय तेरमगुन-थिति गुन-अमान ।११। गत चौदह में द्वै भाग तत्र, क्षय कीन बहत्तर तेरहत्र । वेदनी-असाता को विनाश, औदारि-विक्रिया-हार नाश ।१२। तैजस्य-कारमानों मिलाय, तन पंच-पंच बंधन विलाय । संघात-पंच घाते महंत, त्रय-अंगोपांग-सहित भनंत ।१३। संठान-संहनन छह-छहेव, रस-वरन-पंच वसु-फरस भेव । जुग-गंध देवगति-सहित पुव्व, पुनि अगुरुलघु उस्वास दुव्व ।१४। पर-उपघातक सुविहाय नाम, जुत अशुभ-गमन प्रत्येक खाम । अपरज थिर-अथिर अशुभ-सुभेव, दुरभाग सुसुर-दुस्सुर अभेव ।१५। 540
SR No.009252
Book TitleJin Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages771
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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