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।। इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥
|| Ityāśīrvāda: Puspāñjalim ksipet ||
स्वयंभूस्तोत्र-भाषा Svayambhūstotra-Bhāsā
मूल (संस्कृत) रचना : आचार्य समंतभद्र भाषा (हिन्दी) अनुवाद : कविश्री धा
विद्वानों, योगियों और त्यागी- तपस्वियों के पूज्य स्वामी आचार्य समंतभद्र सोत्साह मुनि जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय असाता वेदनीय कर्म के प्रबल उदय से उन्हें 'भस्मक' नाम का महारोग हो गया। मुनिचर्या के दौरान इस रोग का शमन होना असंभव जानकर उन्होंने अपने गुरु से सल्लेखना धारण करने की आज्ञा चाही| गुरु महाराज ने कहा कि आप के द्वारा जिन - शासन की विशेष प्रभावना होनी है, सल्लेखना का समय अभी नहीं आया है। Mūla (sanskrit) rachana : ācārya samantabhadra Bhasha (hindi) anuvada: Kaviśrī dyānatarāya
vidvānōm, yōgiyōṁ aura tyāgī-tapasviyōṁ ke poojya svāmī ācārya samantabhadra sōtsäha muni jīvana vyatīta kara rahe the, usa samaya asātā vēdanīya karma ke prabala udaya sẽ unhēm ‘bhasmaka' nāma kā mahārōga hō gayā. Municaryā ke daurāna isa rōga kā śamana hōnā asambhava jānakara unhōnnē apanē guru sē sallēkhanā dharaṇa karanē kī ājñā cāhī guru mahārāja nē kaha ki āpa ke dvārā jin-śāsana ki vishesh prabhaavana honee hai, sallēkhanā kā samaya abhī nahīṁ āyā hai |
रोग-शमन हेतु पौष्टिक भोजन की आज्ञा लेकर आपने दिगम्बर वेष का त्याग किया और कांची में मलिन वेषधारी दिगम्बर रहे, राजा ने उन्हें सही-सही परिचय बताने के लिए कहा। समंतभद्र ने कहा कि मैं आचार्य हूँ, शास्त्रार्थियों
में श्रेष्ठ हूँ, पण्डित हूँ, ज्योतिषी हूँ, वैद्य हूँ, कवि हूँ, मांत्रिक-तांत्रिक हूँ, हे राजन ! इस संपूर्ण पृथ्वी में मैं आज्ञा सिद्ध हूँ, अधिक क्या कहूँ, सिद्ध सारस्वत हूँ और अब आपके सम्मुख जैन-वादी खड़ा है, जिसकी शक्ति हो मुझसे शास्त्रार्थ कर ले।
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