________________
तेरे विकीर्ण गुण सारे प्रभु! मुक्ता-मोदक से सघन हुए |
अतएव रसास्वादन करते, रे! घनीभूत अनुभूति लिये || हे नाथ! मुझे भी अब प्रतिक्षण, निज अंतर-वैभव की मस्ती |
है आज अर्घ्य की सार्थकता, तेरी अस्ति मेरी बस्ती || ओं ह्रीं श्री सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।९। Tērē vikīrṇa guņa sārē prabhu! Muktā-modaka sē saghana hu’ē
Ata'ēva rasāsvādana karatē, rē! Ghanībhūta anubhūti liyē || Hē nātha! Mujhē bhī aba pratiksana, nija antara-vaibhava kī masti
Hai āja arghya kī sārthakatā, tērī asti mērī bastī || Om hrīm sri siddhacakrādhipatayē siddhaparamēșthinē anarghyapada-prāptaye arghyam nirvapāmiti svāhā ||9||
जयमाला
Jayamālā
(दोहा)
चिन्मय हो चिद्रूप प्रभु! ज्ञाता-मात्र चिदेश | चिदात्म-शोध-प्रबन्ध के, सृष्टा तुम ही एक ||
(Dohā) Cinmaya ho cidrāpa prabhu! Jnata-mātra cidesa | Cidātma-śõdha-prabandha kē, srstā tuma hī ēka ||
(रेखता) जगाया तुमने कितनी बार! हुआ नहिं चिर-निद्रा का अंत |
मदिर-सम्मोहन ममता का, अरे! बेचेत पड़ा मैं संत || घोर-तम छाया चारों ओर, नहीं निज-सत्ता की पहिचान | निखिल जड़ता दिखती सप्राण, चेतना अपने से अनजान ||
ज्ञान की प्रतिपल उठे तरंग, झाँकता उसमें आतमराम | अरे! आबाल सभी गोपाल, सुलभ सबको चिन्मय अभिराम || किंतु पर-सत्ता में प्रतिबद्ध, कीर-मर्कट-सी गहल अनंत | अरे! पाकर खोया भगवान्, न देखा मैंने कभी बसंत ||
321