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देव दर्शन / स्वाध्याय विधि (Worship-Study Guide)
प्रतिदिन सूर्योदय से पहले जाग जाना चाहिए। जागते ही कम से कम नौ बार णमोकार-मंत्र जपना चाहिए। फिर विचार करना चाहिए कि 'मैं कौन हूँ, और मेरा क्या धर्म है? अनादिकाल से संसार में भ्रमण करते-करते बड़ी कठिनता से यह मनुष्य जन्म मिला है और उसमें बड़े पुण्य से यह जैनधर्म प्राप्त हुआ है। अतः प्रमाद छोड़कर सावधानी से इस दुर्लभ-धर्म का पालन करना है।' मन में ऐसा दृढ़-संकल्प करके उठना चाहिए, घर के बड़ों को प्रणाम कर, फिर स्नानादि करके स्वच्छ-वस्त्र पहिनकर अक्षत (चावल), बादाम आदि द्रव्य लेकर जिनमन्दिर जाना चाहिए।
मंदिरजी जाते समय स्तुति, पाठ आदि बोलते रहने से किसी तरह के दुनियादारी के संकल्प-विकल्प मन में नहीं आते
और मन स्वच्छ रहता है। मंदिरजी पहुँचकर छने जल से मुँह, हाथ व पैर धोना चाहिए और 'नि:सहि-नि:सहिनिःसहि' कहते हुये भक्तिभाव से जिनालय में प्रवेश कर, घंटा बजाना चाहिए। मंदिर जी का घंटा हमारी विशुद्ध भावनाओं को प्रसारित करने का साधन है; क्योंकि पंचकल्याणक के समय घंटे को भी मंत्रों से संस्कारित किया जाता है; इस की आवाज से सांसारिक विचारों का तारतम्य ट जाता है और एकाग्रता आती है। इसे 'सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र-प्राप्ताय नमः' बोलते हए प्रायः तीन बार ही बजाना चाहिए। घंटे की ध्वनि से पर्यावरण भी परिशद्ध होता है: और यदि किसी को 'नि:सहि' की ध्वनि सनाई नहीं दी है तो घंटे की आवाज से वह सचेत हो जायेगा।
वेदी के सम्मुख जिनेन्द्रप्रभु के दर्शन, खड़े होकर दोनों हथेलियों में द्रव्य ले, बन्द-कमल के आकार में जोड़कर, दोनों कोहनियों को पेट से लगाकर, णमोकार मंत्र, दर्शन स्तुति आदि बोलते हुए करने चाहिए। दर्शन करते समय अपनी दृष्टि प्रतिमा जी पर ही रहे तथा विनती-स्तोत्र में ऐसी तल्लीनता रहनी चाहिए कि वचन और काया के साथ मन भी एकरूप हो जाये। इससे राग-द्वेष से छुटकारा होकर कर्मों की निर्जरा होती है। 'निःकाचित कर्म' जिनमें किसी दशा
नि नहीं होता और जिनका अशभ-फल सनत्कुमार चक्रवर्ती, श्रीपाल जैसे बड़े-बड़े पुण्यात्माओं को भी भोगना पड़ा, ऐसे कर्म वीतराग-भगवान् की सुदृढ़-भक्ति से ही कट पाते हैं। अतः भक्ति में तल्लीनता बहुत आवश्यक
और कल्याणकारिणी है। स्तोत्र पूरा होने पर अर्घ्य-पद व मन्त्र बोलते हुए हथेलियों का द्रव्य वेदी पर विनय सहित चढ़ा देवें। (द्रव्य न हो, तो गोलक में कुछ रुपये-पैसे डाले जा सकते हैं)। फिर धोक देकर पुनः पुण्यवर्द्धक स्तुति पढ़ते हुये तीन प्रदक्षिणाएँ देना चाहिए। (प्रदक्षिणा का अर्थ है- घड़ी के काँटों की दिशा में, भगवान के दाहिनी बाजू से पीछे जाना और बाई बाजू से वापस सामने आना |)
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