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चक्ररत्तन शुभ प्राप्त हुआ जब, चक्रवर्ती कहलाए प्रभु तब । एक दिन गए प्रभु उपवन में, शान्त मुनि इक देखे मग में । इंगिन किया तभी अंगुलिसे, “देखो मुनिको' -कहा मंत्री से । मंत्री ने पूछा जब कारण, “किया मोक्षहित मुनिपद धारण' ।
कारण करें और स्पष्ट, “मुनिपद से ही कर्म हों नष्ट' । मंत्रो का तो हुआ बहाना, किया वस्तुतः निज कल्याणा । चिन विरक्त हुआ विषयों से, तत्व चिन्तन करते भावों से । निज सुत को सौंपा सब राज, गए सहेतुक वन जिनराज । पंचमुष्टि से कैशलौंचकर, धार लिया पद नगन दिगम्बर । तीन दिन बाद गए गजपुर को, धर्ममित्र पड़गाहें प्रभु को।
मौन रहे सोलह वर्षों तक, सहे शीत-वर्षा और आतप । स्थिर हुए तिलक तरु- जल में, मगन हुए निज ध्यान अटल में। आतम ने बढ़ गई विशुद्धि, कैवलज्ञान की हो गई सिद्धि । सूर्यप्रभा सम सोहें आप्त, दिग्मण्डल शोभा हुई व्याप्त ।
समोशरण रचना सुखकार, ज्ञाननृपित बैठे नर- नार । विषय-भोग महा विषमय है, मन को कर देते तन्मय हैं। विष से मरते एक जनम में, भोग विषाक्त मरें भव- भव में । क्षण भंगुर मानब का जीवन, विद्युतवन विनसे अगले क्षण ।
सान्ध्य ललिमा के सदृश्य ही, यौवन हो जाता अदृश्य ही। जब तक आतम बुद्धि नही हो, तब तक दरश विशुद्धि नहीं हौं । पहले विजित करो पंचेन्द्रिय, आत्तमबल से बनो जितेन्द्रिय । भव्य भारती प्रभु की सुनकर, श्रावकजन आनन्दित को कर ।
श्रद्धा से व्रत धारण करते, शुभ भावों का अर्जन करते । शुभायु एक मास रही जब, शैल सम्मेद पे वास किया तब । धारा प्रतिमा रोग वहाँ पर, काटा क्रर्मबन्ध्र सब प्रभुवर । मोक्षकल्याणक करते सुरगण, कूट ज्ञानधर करते पूजन । चक्री... कामदेव... तीर्थंकर, कुंन्धुनाथ थे परम हितंकर । चालीसा जो पढे भाव से, स्वयंसिद्ध हों निज स्वभाव से।
धर्म चक्र के लिए प्रभु ने, चक्र सुदर्शन तज डाला।
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