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गए शुद्ध शिला तल पर विराज, ऊपर रहा “तुम्बुर वृक्ष' साज ॥ किया ध्यान वहाँ स्थिर होकर, हुआ जान मन:पर्यय सत्वर ॥ हुए धन्य सिद्धार्थ नगर भूप, दिया पात्रदान जिनने अनूपा ॥ महिमा अचिन्त्य है पात्र दान, सुर करते पंच अचरज महान ।
वन को तत्काल ही लोट गए, पूरे दो साल वे मौन रहे । आई जब अमावस माघ मास, हुआ केवलज्ञान का सुप्रकाश ॥ रचना शुभ समवशरण सुजान, करते धनदेव-तुरन्त आन ।। प्रभु दिव्यध्वनि होती विकीर्ण, होता कर्मों का बन्ध क्षीण ॥ “उत्सर्पिणी – अवसर्पिणी विशाल, ऐसे दो भेद बताये काल ॥ एकसौ अड़तालिस बीत जायें, तब हुण्डा - अवसर्पिणी कहाय ॥ सुरवमा- सुरवमा है प्रथम काल, जिसमें सब जीव रहें खुशहाल ॥ दूजा दिखलाते 'सुखमा' काल, तीजा "सुखमा दुखमा' सुकाल ॥ चौथा ‘दुखमा-सुखमा’ सुजान, 'दूखमा' है पंचमकाल मान ।। 'दुखमा- दुखमा' छट्टम महान, छट्टम छट्टा एक ही समान ॥
यह काल परिणति ऐसी ही होती भरत - ऐरावत में ही ॥ रहे क्षेत्र विदेह में विद्यमान, बस काल चतुर्थ ही वर्तमान || सुन काल स्वरुप को जान लिया, भवि जीवों का कल्याण हुआ । हुआ दूर- दूर प्रभु का विहार, वहाँ दूर हुआ सब शिथिलाचार ॥
फिर गए प्रभु गिरिवर सम्मेद, धारें सुयोग विभु बिना खेद ॥ हुई पूर्णमासी श्रावण शुक्ला, प्रभु को शाश्वत निजरूप मिला । पूजें सुर “संकुल कूट' आन, निर्वाणोत्सव करते महान || प्रभुवर के चरणों का शरणा, जो भविजन लेते सुखदाय ।। उन पर होती प्रभु की करुणा, 'अरुणा' मनवाछिंत फल पाय ।। जापः - - ॐ अर्हं श्रेयान्सनाथाय नभः
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