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दो दिन का व्रत करके इष्ट, प्रथमाहार हुआ नगर अरिष्ट ।
दिया आहार पुनर्वसु नृप ने, पंचाश्चर्य किए देवों ने । किया तीन वर्ष तप घोर, शीतलता फैली चहुँ ओर । कृष्ण चतुर्दशी पौषविरव्याता, कैवलज्ञानी हुए जगत्राता । रचना हुई तब समोशरण की, दिव्य देशना खिरी प्रभु की। “आतम हित का मार्ग बताया, शंकित चित समाधान कराया।
तीन प्रकार आत्मा जानो, बहिरातन-अन्तरातम मानो। निश्चय करके निज आतम का, चिन्तन कर लो परमातम का।
मोह महामद से मोहित जो, परमातम को नहीं मानें वो। वे ही भव... भव में भटकाते, वे ही बहिरातम कहलाते ।
पर पदार्थ से ममता तज के, परमात्म में श्रद्धा करके। जो नित आतम ध्यान लगाते, वे अन्तर- आतम कहलाते ।
गुण अनन्त के धारी है जो, कर्मों के परिहारी है जो। लोक शिखर के वासी है वे, परमात्म अविनाशी हैं वे । जिनवाणी पर श्रद्धा धरके, पार उतरते भविजन भव से। श्री जिनके इक्यासी गणधर, एक लक्ष थे पूज्य मुनिवर । अन्त समय गए सम्मेदाचंल, योग धार कर हो गए निश्चल ।
अश्विन शुक्ल अष्टमी आई, मुक्ति महल पहुंचे जिनराई। लक्षण प्रभु का ‘कल्पवृक्ष' था, त्याग सकल सुख वरा मोक्ष था। शीतल चरण-शरण में आओ, कूट विद्युतवर शीश झुकाओ।
शीतल जिन शीतल करें, सबके भव-आताप । हम सब के मन में बसे, हरे' सकलं सन्ताप ।
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