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एकादशी चैत्र की शुक्ला, धन्य हुई केवल – रवि निकाला ॥ ___समोशरण में प्रभु विराजे, दृवादश कोठे सुन्दर साजें ॥ दिव्यध्वनि जब खिरी धरा पर, अनहद नाद हुआ नभ उपर ।। किया व्याख्यान सप्त तत्वो का, दिया द्रष्टान्त देह – नौका का ॥ जीव – अजिव – आश्रव बन्ध, संवर से निर्जरा निर्बन्ध ।।
बन्ध रहित होते है सिद्ध, है यह बात जगत प्रसिद्ध ।। नौका सम जानो निज देह, नाविक जिसमें आत्म विदह ।। नौका तिरती ज्यो उदधि में, चेतन फिरता भवोदधि में । हो जाता यदि छिद्र नाव में, पानी आ जाता प्रवाह में ।। ऐसे ही आश्रव पुद्गल में, तीन योग से हो प्रतीपल में । भरती है नौका ज्यो जल से, बँधती आत्मा पुण्य पाप से । छिद्र बन्द करना है संवर, छोड़ शुभाशुभ – शुद्धभाव धर ।। जैसे जल को बाहर निकाले, संयम से निर्जरा को पाले ॥ नौका सुखे ज्यों गर्मी से, जीव मुक्त हो ध्यानाग्नि से ॥ ऐसा जान कर करो प्रयास, शाश्वत सुख पाओ सायास ।। जहाँ जीवों का पुन्य प्रबल था, होता वही विहार स्वयं था। उम्र रही जब एक ही मास, गिरि सम्मेद पे किया निवास ॥ शुक्ल ध्यान से किया कर्मक्षय, सन्धया समय पाया पद अक्षय ।।
चैत्र सुदी एकादशी सुन्दर, पहुँच गए प्रभु मुक्ति मन्दिर ॥ चिन्ह प्रभु का चकवा जान, अविचल कूट पूजे शुभथान ।।
इस असार संसार में , सार नही है शेष ।। हम सब चालीसा पढे, रहे विषाद न लेश ।
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