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धर्मचक्र विधान की आरती
जिनवर का दरबार है नमन करें शतबार है। धर्मचक्र की देखो कैसी महिमा अपरंपार है।।टेक.।। मंगल आरति लेकर प्रभु जी आया तेरे द्वार जी।
धर्मचक्र का पाठ करे जो होगा बेड़ा पार जी।। यही जगत में सार है, झूठा सब संसार है।।धर्म.॥१॥
चौबीसों जिन पंच परम गुरु, रत्नत्रय उर धार जी। अवधि ऋद्धि धारक ऋषि धर्म को भक्ति सहित शिर धार जी।।
यही गले का हार है, मानव का शृंगार है।।धर्म.॥२॥ पाठ तो हमने बहुत से देखे, भारत देश विदेश जी। धर्मचक्र सा पाठ न देखा, अतिशय दिखे विशेष जी।। मूल मंत्र आधार है, बीज यंत्र साकार है।।धर्म.॥३॥
यह तन तेरा इक दिन चेतन मिट्टी में मिल जायेगा। “अभयमती' कहं जप तप कर ले नहिं पीछे पछतायेगा।। प्रभु की भक्ति अपार है, पावें मुक्ति पुकार है।।धर्म.॥४॥
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