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धवला पुस्तक 1
67 है।213॥ वयणेहि वि होऊहि वि इंदिय-भय-आणएहि रूवेहि।
वीहच्छ-दुगुंछाहि ण सो ते-लोक्केण चालेज्ज।।214।।
श्रद्धान को भ्रष्ट करने वाले वचन या हेतुओं से अथवा इन्द्रियों को भय उत्पन्न करने वाले आकारों से या बीभत्स अर्थात् निन्दित पदार्थों के देखने से उत्पन्न हुई ग्लानि से, किंबहुना तीन लोक से भी वह क्षायिक सम्यग्दर्शन चलायमान नहीं होता है।।214।।
वेदक सम्यक्त्व दंसणमोहुदयादो उप्पज्जइ जं पयत्थसद्दहणं। चल-मलिनमगाढं तं वेदग-सम्मत्तमिह मुणसु।।215।।
सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन और अगाढ़रूप श्रद्धान होता है, उसको वेदक सम्यग्दर्शन कहते हैं। ऐसा हे शिष्य! तू समझ।।215।।
उपशम सम्यक्त्व दंसणमोहुवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थ-सद्दहणं। उवसम-सम्मत्तमिणं पसण्ण-मल-पंक तोय-सम।।216।।
दर्शन मोहनीय के उपशम से कीचड़ के नीचे बैठ जाने से निर्मल जल के समान पदार्थों का जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह उपशम सम्यग्दर्शन है।।216।।
सासादन सम्यग्दृष्टि ण य मिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो दु परिवदिदो। सो सासणे त्ति यो सादिय मध पारिणामिओ भावो।।217।। जो सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को नहीं प्राप्त हुआ है, उसे