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धवला पुस्तक 1
__63 द्रव्य में अर्थ एवं व्यञ्जन पर्यायें एय-दवियम्मि जे अत्थ-पज्जया वयण-पज्जया वावि। तीदागय-भूदा तावदियं तं हवइ दव्व।।199।।
एक द्रव्य में अतीत, अनागत और गाथा में आये हुए 'अपि' शब्द से वर्तमान पर्यायरूप जितनी अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय हैं तत्प्रमाण वह द्रव्य होता है।।199॥
कृष्ण लेश्या चंडो ण मुयदि बैरं भंडण-सीलो य धम्म-दय -रहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेदं तु किण्हस्स।।200।।
तीव्र क्रोध करने वाला हो, बैर को न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो और जो किसी के वश को प्राप्त न हो, ये सब कृष्ण लेश्या वाले के लक्षण हैं।।200।।
मंदो बुद्धि-विहीणो णिव्विण्णाणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा आलस्सो चे भेज्जो य।।201।।
मन्द अर्थात स्वच्छन्द हो अथवा काम करने में मन्द हो. वर्तमान कार्य करने में विवेक रहित हो, कला-चातुर्य से रहित हो, पाँच इन्द्रियों के स्पर्शादि बाह्य विषयों में लम्पट हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी हो और भीरू हो, ये सब भी कृष्ण लेश्या वाले के लक्षण हैं।।201।।
नील लेश्या णिहा-वंचण-बहुलो घण-घण्णे होइ तिव्व-सण्णो य। लक्खणमेदं भणियं समासदो णील-लेस्सस्स।।202।।
जो अतिनिद्रालु हो, दूसरों को ठगने में अतिदक्ष हो और धन-धान्य के विषय में जिसकी अतितीव्र लालसा हो, ये सब नील लेश्या वाले के संक्षेप