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धवला उद्धरण
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अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान णो इंदिएसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। सो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।।111।।
जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि है।।111।।
विरताविरत गुणस्थान जो तस-वहाउ विरओ अविरओ तह य थावर-वहाओ। एक्क-समयम्हि जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई।।112।।
जो जीव जिनेन्द्रदेव में द्वितीय श्रद्धा को रखता हुआ एक ही समय में त्रस जीवों की हिंसा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा से अविरत होता है, उसको विरताविरत कहते हैं।112।।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान वत्तावत्त पमाण जो वसई पमत्तसंजदो होइ। सयल-गुण-सील-कलिओ महव्वई चित्तलायरणो।।113।।
जो व्यक्त अर्थात् स्वसंवेद्य और अव्यक्त अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञानियों के ज्ञान द्वारा जानने योग्य प्रमाद में वास करता है, जो सम्यक्त्व, ज्ञानादि संपूर्ण गुणों से और व्रतों के रक्षण करने में समर्थ ऐसे शीलों से युक्त है, जो (देशसंयत की अपेक्षा) महाव्रती है और जिसका आचरण प्रमाद मिश्रित है अथवा चित्रल सारंग को कहते हैं, इसलिये जिसका आचरण सारंग के समान शवलित अर्थात् अनेक प्रकार का है अथवा चित्त में प्रमाद को उत्पन्न करने वाला जिसका आचरण है, उसे प्रमत्तसंयत कहते हैं।।113।।