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धवला उद्धरण
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जहाँ पर अज्ञानी भ्रमण करता है वहीं पर हिंसा के परिहार की विधि को जानने वाला भी भ्रमण करता है, परन्तु वह अज्ञानी पाप से बँधता है और परिहार विधि का जानकार उससे मुक्त होता है।।4।। स्वयं ह्यहिंसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत्। प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिंसकः प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसकः।।5।।
अहिंसा स्वयं होती है और हिंसा भी स्वयं ही होती है। यहाँ ये दोनों पराधीन नहीं हैं। जो प्रमादहीन है वह अहिंसक है, किन्तु जो प्रमादयुक्त है वह सदैव हिंसक है।।5।। वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते शिवं च न परोपमर्दपरुषस्मृतेर्विद्यते। वधोपनयमभ्युपैति च परान्निघ्नन्नपि त्वयायमतिदुर्गमः प्रशमहेतुरुद्योतितः।।6।।
कोई प्राणी दूसरे को प्राणों से वियुक्त करता है फिर भी वह बंध से संयुक्त नहीं होता तथा परोपघात जिसकी स्मृति कठोर हो गई है, अर्थात् जो परोपघात का विचार करता है उसका कल्याण नहीं होता तथा कोई दूसरे जीवों को नहीं मारता हुआ भी हिंसकपने को प्राप्त होता है। इस प्रकार हे जिन! तुमने यह अतिगहन प्रशम का हेतु प्रकाशित किया है, अर्थात् शान्ति का मार्ग बतलाया है।।।6।।
वर्गणा के भेद अणुसंखासंखज्जा तधणंता वग्गणा अगेज्झाओ। आहार-तेज-भासा-मण-कम्मइय-धुवक्खंधा।।7।। सांतरणिरंतरे दरसुण्णा पत्ते यदेह शुवसुण्णा । बादरणिगोद सुण्णा सुहुमा सुण्णा महाखंधो।।8।।
अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्णणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, तैजसवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा,