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धवला पुस्तक 13
229 जह सव्वसरीरगयं मंतेण विसं णिरुभए डंके। तत्तो पुणोऽवणिज्जदि पहाणझर मंतजोएण।17511
जिस प्रकार मन्त्र के द्वारा सब शरीर में भिदे हुए विष का डंक के स्थान में निरोध करते हैं और प्रधान क्षरण करने वाले मन्त्र के बल से उसे पुनः निकालते हैं।।75।।
तह बादरतणुविसयं जोगविसं ज्झाणमंतबलजुत्तो। अणुभावम्मि णिरुंभदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो।।76।।
उसी प्रकार ध्यानरूपी मन्त्र के बल से युक्त हुआ यह सयोग केवली जिनरूपी वैद्य बादर शरीर विषयक योग विषय को पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है।।76।।
व्युपरत क्रिया निवर्ति अविदक्कमवीचारं अणियट्टी अकिरियं च सेलेसिं। ज्झाणं णिरुद्धजोगं अपच्छिम उत्तम सुक्क।।77।।
अन्तिम उत्तम शुक्ल ध्यान वितर्क रहित है, वीचार रहित है, अनिवृत्ति है, क्रिया रहित है, शैलेशी अवस्था को प्राप्त है और योग रहित है।।77।।
शब्द के भेद-प्रभेद तद विददो घण सुसिरो घोसो भासा त्ति छव्विहो सहो। सो पुण सहो तिविहो संतो घोरो य मोघो य।।1।।
शब्द छह प्रकार हैं - तत, वितत, घन, सुषिर, घोष और भाषा। पुनः वह शब्द तीन प्रकार का है- प्रशस्त, घोर और मोघ।।1।।
पभवच्चुदस्स भागा वट्ठाणं णियमसा अणंता दु। पढमागासपदेसे बिदियम्मि अणंतगुणहीणा।।2।। उत्पत्तिस्थान में च्युत हुए पुद्गलों के अनन्त बहुभाग प्रमाण पुद्गल