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________________ धवला पुस्तक 1 17 पंच परमेष्ठी की विनय जस्संतियं धम्मपहं णिगच्छे तस्संतियं वेणइयं पउंजे। सक्कारए तं सिर-पंचएण काएण वाया मणसा य णिच्च।।34।। जिसके समीप धर्म-मार्ग प्राप्त करे, उसके समीप विनय युक्त होकर प्रवृत्ति करनी चाहिये तथा उसका शिर-पंचक अर्थात् मस्तक, दोनों हाथ और दोनों जंघाएं इन पंचांगों से तथा काय, वचन और मन से निरन्तर सत्कार करना चाहिये। छद्दव्व-णव-पयत्थे सुय-णाणाइच्च-दिप्प-तेएण। पस्संतु भव्व-जीवा इय सुय-रविणो हये उदयो।।35।। भव्यजीव श्रुतज्ञानरूपी सूर्य के दीप्त तेज से छह द्रव्य और नव पदार्थों को देखें अर्थात् भलीभांति जानें, इसलिये श्रुतज्ञानरूपी सूर्य का उदय हुआ है।।35।। राजा का स्वरूप अष्टादशसंख्यानां श्रेणीनामधिपतिर्विनम्राणाम्। राजा स्यान्मुकुटधरः कल्पतरुः सेवामानानाम्।।36।। जो नम्रीभूत अठारह श्रेणियों का अधिपति हो, मुकुट को धारण करने वाला हो और सेवा करने वालों के लिये कल्पवृक्ष के समान हो, उसे राजा कहते हैं।।36।। हय-हथि-रहाणहिवा सेणावइ-मंति-सेठ्ठि-दंडवई। सह-क्खत्तिय-बम्हण-वइसा तह महयरा चेव।।37।। गणरायमच्च-तलवर-पुरोहिया दप्पिया महामत्ता। अट्टठारह सेणीओ पयाइणा मेलिया होति।।38।। घोड़ा, हाथी, रथ, इनके अधिपति, सेनापति, मन्त्री, श्रेष्ठी, दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, महत्तर, गणराज, अमात्य, तलवर, पुरोहित,
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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