SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवला उद्धरण 214 प्रायश्चित्त की निरुक्ति प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तच्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्।।9।। प्रायः यह पद लोकवाची है और चित्त से अभिप्राय उसके मन का है। इसलिये उस चित्त को ग्रहण करने वाला कर्म प्रायश्चित्त है, ऐसा समझना चाहिये।।।। कृतानि कर्माण्यतिदारुणानि तनूभवन्त्यात्मविगर्हणेन। प्रकाशनात्संवरणाच्च तेषामत्यन्तमूलोद्धरणं वदामि।।10।। अपनी गर्दा करने से, दोषों का प्रकाशन करने से और उनका संवर करने से किये गये अतिदारुण कर्म कृश हो जाते हैं। अब उनका समूल नाश कैसे हो जाता है, यह कहते हैं।।10।। प्रायश्चित के भेद आलोयण-पडिकमणे उभय-विवेगे तहा विउसग्गो। तवछेदो मूलं पि य परिहारो चेव सद्दहणा।।11।। आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान ये प्रायश्चित के दस भेद हैं।।11।। ध्यान और अनुप्रेक्षा जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलंतय चित्तं। तं होइ भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिंता।।12।। जो परिणामों की स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है और जो चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में चलायमान होना है वह या तो भावना है या अनुप्रेक्षा है या चिन्ता है।।12।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy