________________
धवला पुस्तक 10
199 जहाँ-जहाँ जिन स्पर्धकों की आदि वर्गणा जानना अभीष्ट हो वहाँ पिछले स्पर्धक की वर्गणा को प्रथम वर्गणा सहित करने पर अनन्तर स्पर्धक की प्रथम वर्गणा होती है।।21।।
बिदियादिवग्गणा पुण जावदिरूवेहि होदि संगुणिदा। तावदिमफद्दयस्स दु जुम्मस्स स वग्गणा होदि।।22।।
द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा को जितने अंकों से गुणित किया जाता है उतने में युग्म स्पर्धक की वह प्रथम वर्गणा होती है।।22।।
दो-दो रूवक्खवं ध्रुवरूवे कादुमादियं गुणिदं। पक्खेव सलागसमाणे ओजे आदिं धुवं मोत्तुं।।23।।
ध्रुव रूप में दो-दो अंकों का प्रक्षेप करके उससे प्रथम स्पर्धक की प्रथम वर्गणा को गुणित करने पर जो प्राप्त हो उतना प्रक्षेपशलाकाओं से युक्त ध्रुव रूप में पिछले ओज स्पर्धकों के प्रमाण को नियम से घटाने पर जो शेष रहे उतनेंवे ओज स्पर्धक की प्रथम वर्गणा का प्रमाण होता है।।23।। विसमगुणादेगूणं दलिदे जुम्मम्मि तथ फद्दयाणि। ते चेव रूवसहिदा ओजे उभओ वि सव्वाणि।।24।।
विषमगुण अर्थात् ओज स्पर्धक के गुणकार में से एक कम करके आधा करने पर वहाँ युग्म स्पर्धकों का प्रमाण आता है। उनमें ही एक अंक के मिला देने पर ओज स्पर्धकों का प्रमाण हो जाता है। उक्त दोनों स्पर्धकों के प्रमाण को जोड़ने से समस्त स्पर्धकों की संख्या प्राप्त होती है।।124॥ विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोण्णगुणं पुणो दुपडिरासिं। कादूण एक्करासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिय।।25।। उत्तरगुणिदं इच्छं उत्तर-आदीय संजुदं अवणे। सेसं हरेज पदिणा आदिमछेदद्धगुणिदेण।।26।।