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________________ 15 धवला पुस्तक 1 निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं, अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने सर्वांग से समस्त पर्यायों सहित संपूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वज्रशिला में उत्कीर्ण प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त हैं, जो सब अवयवों से पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुष के समान नहीं हैं, क्योंकि जो संपूर्ण इन्द्रियों के विषयों को एकदेश में भी जानते हैं वे सिद्ध हैं।।26-28।। आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप पवयण-जलहि-जलोयर-ण्हायामल-बुद्धि-सुद्ध-छावासो। मेरु व्व णिप्पकंपो सूरो पंचाणणो वज्जो।।29।। देस-कुल-जाइ-सुद्धो सोमंगो संग-भंग-उम्मुक्को। गयण व्व णिरुवलेवो आइरियो एरिसो होइ।।30।। संगह-णग्गह-कसलो सत्तत्थ-विसारओ पहिय-कित्ती। सारण-वारण-सोहण-किरियुज्जुत्तो हु आइरियो।॥31॥ प्रवचनरूपी समद्र के जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु पर्वतों के समान निष्कम्प हैं.जो शरवीर हैं जो सिंह के समान निर्भीक हैं. जो निर्दोष हैं, देश, कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्लेप हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी होते हैं। जो संघ के संग्रह अर्थात दीक्षा और अनग्रह करने में कुशल हैं, अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और शोधन अर्थात् व्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उद्युक्त हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिये।।29-31।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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