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धवला पुस्तक 1
___ मंगलाचरण की आवश्यकता आदिम्हि भद्द-वयणं सिस्सा लहु पारया हवंतु त्ति। मज्झे अव्वोच्छित्ती विज्जा विज्जा-फलं चरिमे।।20।।
शिष्य सरलतापूर्वक प्रारंभ किये गये ग्रंथाध्ययनादि कार्य के पारंगत हों, इसलिये आदि में भद्रवचन अर्थात् मंगलाचरण करना चाहिये। प्रारम्भ किये गये कार्य की व्युच्छित्ति न हो इसलिये मध्य में मंगलाचरण करना चाहिये और विद्या तथा विद्या के फल की प्राप्ति हो, इसलिये अन्त में मंगलाचरण करना चाहिये।।20।।
जिनगुणकीर्तन का फल विघ्नाः प्रणश्यन्ति भयं न जातु न दुष्टदेवाः परिलयन्ति। अर्थान्यथेष्टांश्च सदा लभन्ते जिनोत्तमानां परिकीर्तनेन।।21।।
जिनेन्द्रदेव के गुणों का कीर्तन करने से विघ्न नाश को प्राप्त होते हैं, कभी भी भय नहीं होता है, दुष्ट देवता आक्रमण नहीं कर सकते हैं और निरन्तर यथेष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है।।21।।
आदी मध्येऽवसाने च मखलं भाषित बुधैः। तज्जिनेन्द्रगुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये।।22।। विद्वान पुरुषों ने प्रारम्भ किये गये किसी भी कार्य के आदि, मध्य और अन्त में मंगल करने का विधान किया है। वह मंगल निर्विघ्न कार्यसिद्धि के लिये जिनेन्द्र भगवान् के गुणों का कीर्तन करना ही है।।22।।
अरिहन्त परमेष्ठी का स्वरूप णिबद्ध-मोह-तरुणो वित्थिण्णाणाण-सारुत्तिण्णा। णिहय-णिय-विग्घ-वग्गा बहु-बाह-विणिग्गया अयला।।23।।