________________
धवला उद्धरण
156
बंधोदय पुव्वं वा समं व सपरोदए तदु भएन । सांतर निरंतरं वा चरिमेदर सादिआदीया ||5||
बन्ध पूर्व में होता है, उदय पूर्व में होता है, या दोनों साथ होते हैं, वह बन्ध स्वोदय से, परोदय से या दोनों के उदय से होता है, उक्त बन्ध सान्तर है या निरन्तर है, वह अन्तिम समय में होता है या इतर समय में होता है तथा वह सादि है या अनादि है॥5॥
गुणस्थानों में उदय व्युच्छित्ति
दस चदुरिगि सत्तारस अट्ठ य तह पंच चेव चउरो य । छच्छक्क एय दुग दुग चोइस उगुतीस तेरसुदयविही ।।6।।
दश, चार, एक, सत्तरह, आठ, पाँच, चार, छह, छह, एक, दो, दो, चौदह उनतीस और तेरह, (इस प्रकार क्रमशः मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों में उदयव्युच्छित्ति प्रकृतियों की संख्या हैं ) ।।6।।
देवाउ-देवचउक्काहार दुअं च अजसमट्ठण्हं । पढममुदओ विणस्सदि पच्छा बंधो मुणेयव्वो ।।7।।
देवायु, देवचतुष्क अर्थात् देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर और वैक्रियिक शरीर - अंगोपांग तथा आहारक शरीर- अंगोपांग एवं अयशकीर्ति, इन आठ प्रकृतियों का पहिले उदय नष्ट होता है, पश्चात् बन्ध-व्युच्छित्ति होती है, ऐसा जानना चाहिये।।7।।
बन्ध एवं उदय व्युच्छेद
मिच्छत्त-भय-दुगुंछा - हस्स - रई - पुरिस - थावरादावा । सुहुमं जाइचउक्कं साहारणयं अपज्जत्तं ॥ 8 ।। पण्णरस कसाया विणु लोहेणेक्केण आणुपुव्वी य। मसाणं एदासिं समगं बंधोदवुच्छे दो ।9।।