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धवला पुस्तक 1
11 इसलिये पूर्ण-कलश मंगलरूप से प्रसिद्ध हुआ। बाहर निकलते समय अथवा प्रवेश करते समय चौबीस ही तीर्थंकर वन्दना करने योग्य हैं, इसलिये भरत चक्रवर्ती ने वन्दनमाला की स्थापना की। अरहंत परमेष्ठी सभी जीवों का कल्याण करने वाले होने से जग के लिये छत्राकार हैं, अथवा सिद्धलोक भी छत्राकार है, इसलिये छत्र मंगलरूप माना गया है। ध्यान, शुक्ललेश्या इत्यादि को श्वेत-वर्ण की उपमा दी जाती है, इसलिये श्वेतवर्ण मंगलरूप माना गया है। जिनेन्द्रदेव केवलज्ञान में जिस प्रकार लोक और अलोक प्रतिभासित होता है. उसी प्रकार दर्पण में भी अपना बिम्ब झलकता है, अतएव दर्पण मंगलरूप माना गया है। जिस प्रकार वीतराग सर्वज्ञदेव लोक में मंगलस्वरूप हैं, उसी प्रकार बालकन्या भी रागभाव से रहित होने के कारण लोक में मंगल मानी गई है। जिस प्रकार जिनेन्द्रदेव ने कर्म-शत्रुओं पर विजय पाई, उसी प्रकार उत्तम जाति के घोड़े से भी शत्रु जीते जाते हैं, अतएव उत्तम जाति का घोड़ा मंगलरूप माना गया है।।13।।
निक्षेपों की आवश्यकता जत्थ बहुं जाणिज्जा अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा। जत्थ बहुवं ण जाणदि चउट्ठयं णिक्खिवे तत्थ।।14।।
जहाँ जीवादि पदार्थों के विषय में बहुत जाने, वहाँ पर नियम से सभी निक्षेपों के द्वारा उन पदार्थों का विचार करना चाहिये और जहाँ पर बहुत न जाने, तो वहाँ पर चार निक्षेप अवश्य करना चाहिये। अर्थात् चार निक्षेपों के द्वारा उस वस्तु का विचार अवश्य करना चाहिये।।14।।
अवगय-णिवारणळं पयदस्स परूवणा-णिमित्तं च। संसय-विणासण8 तच्चत्तथवधारणटुं च।।15।।
अप्रकृत विषय के निवारण करने के लिये, प्रकृत विषय के प्ररूपण करने के लिये, संशय का विनाश करने के लिये और तत्त्वार्थका निश्चय