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________________ धवला पुस्तक 1 नाश को भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अनन्त-काल से अनन्त-पर्याय-परिणत होते रहने पर भी द्रव्य का कभी भी नाश नहीं होता है और न एक द्रव्य के गुण-धर्म बदलकर कभी दूसरे द्रव्यरूप ही हो जाते हैं। अतएव द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा पदार्थ सर्वदा स्थिति-स्वभाव है।।8।। द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के निक्षेप णामं ठवणा दविए त्ति एस दव्वट्ठियस्स पिक्चखेवो। भावो दु पज्जवट्ठिय-परूवणा एस परमट्ठो।।9।। नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीनों द्रव्यार्थिक नय के निक्षेप हैं और भाव पर्यायार्थिक नय की प्ररूपणा है। यही परमार्थ सत्य है।।9।। प्रमाण, नय एवं निक्षेप की आवश्यकता प्रमाण - नय - निक्षेपेऽर्थ नाभिसमीक्षते। युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत्।।10।। जो पदार्थ का प्रत्यक्षादि प्रमाणों के द्वारा, नैगमादि नयों के द्वारा और नामादि निक्षेपों के द्वारा सूक्ष्म-दृष्टि से विचार नहीं करता है, उसे पदार्थ का समीक्षण कभी युक्त (संगत) होते हुए भी अयुक्त (असंगत) सा प्रतीत होता है और कभी अयुक्त होते हुए भी युक्त की तरह प्रतीत होता है।।10।। ज्ञान प्रमाणमित्याहुरुपायो न्यास उच्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तोऽर्थ-परिग्रहः।।11।। विद्वान् लोग सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं, नामादि के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं और ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहते हैं। इस प्रकार युक्त से अर्थात् प्रमाण, नय और निक्षेप के द्वारा पदार्थ का ग्रहण अथवा निर्णय करना चाहिये।।11।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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