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________________ " विरह में व्याकुल रहता था, कुछ न्यून ही सही श्री जतनराजजी मेहता का हृदय अपने प्रभु के विरह में तरसता रहता है। कभी वे अनुभूत भी करते हैं कि उनके प्रिय उनके हृदय मन, प्राण, और आत्मा के कण-कण में व्याप्त हो गये हैं। उन्हें विविध रूपों में अनुभूतियाँ होती है। अपने प्रभु के दर्शन कभी वे ऊषा के सौन्दर्य में विभोर होकर करते हैं, कभी वे मदनोत्सव में लीन हो जाते हैं। हमारे यहाँ अब तक मदनोत्सव लौकिक अर्थ में ग्रहण किया गया है। परम्परा के विपरीत श्री जतनराजजी मेहता ने मदनोत्सव को अलौकिक अर्थ में प्रयुक्त किया है। लौकिक वासनाओं और अभीप्साओं से ऊपर उठकर जिस परम प्रिय प्रभु की वेदना श्री जतनराजजी के हृदय में है, उस विषय में वे बहुत भाव विह्वल होकर अभिव्यक्त होते हैं। संसार के महान् कवियों ने कण-कण में व्याप्त जिस परम चेतना के सौन्दर्य को अनुभूत किया है ऐसा ही श्री जतनराज जी मेहता ने 'अन्तर की ओर शीर्ष पद्य गीत संग्रहों की परम्परा में, यह कृति निश्चय ही नये मापदण्ड स्थापित करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है । 8 डॉ. ताराप्रकाश जोशी १२१, मंगलमार्ग विश्वविद्यालय के सामने टोडरमल स्मारक के पीछे जयपुर।
SR No.009229
Book TitleAntar Ki Aur
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanraj Mehta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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