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६५. अनन्त की यात्रा हे मेरे प्रभो! हे मेरे विभो! अनन्त की यात्रा में यह देह बाह्य धर्मा है मन, प्राण और आत्मा अन्तर धर्मा है अन्तर में सूक्ष्मातिसूक्ष्म शक्तियाँ एकत्र होती है अन्तर ही अन्तर यात्रा की तैयारी करता है अन्तर ही आत्मा को उठने योग्य बनाता है अन्तर ही उन घनीभूत कर्मों को जलाता है हे मेरे प्रभो! हे मेरे अन्तर्यामित कर्मों के बोझ से हल्का होकर मन-प्राण और आत्मा पुण्य रूपी ईंधन को साथ लेकर माया रूपी धरती के आकर्षण से बाहर निकल जाता है और तब अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सूख से आत्मा एकाकार हो उठती है चित्त चैतन्य में प्रभु के दर्शन होते हैं मुझे इस अनन्त सुख का आनन्द लेने दे हे मेरे प्रभो, हे मेरे विभो।