________________
प्रकाशकीय।
आधुनिक हिन्दी परम्परा में रचित गद्य गीत अन्तर्हृदय की भाषा है।
श्री जतनराजजी मेहता ने अपनी वान्धारा से स्वकीय भावना को प्रदर्शित किया है। आनन्दघन जैसे योगीराज ने - "ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो और न चाहूंरे कंत। रीइयो साहिब संग न परिहरे, भांगे सादि अनन्त।" कह कर राम और रहीम के स्वरूप को एक माना है। इस पुस्तक में प्रकृति भाव प्रकट हुआ है। कवि का निष्काम आत्म-समर्पण है। पुस्तक में जीवन की अर्थहीनता और निस्सारता के भाव का सार्थक्यपूर्ण समावेश है। यह पुस्तक भक्ति, करुणा व सरसता से ओत-प्रोत है।
प्रस्तुत पुस्तक आज के विषमता बहुल वातावरण में पाठकों के लिए नि:संदेह शान्ति बहुल भावों का उद्रेक करने में उपयोगी सिद्ध होगी। इससे साहित्यिक सरसता का भी आनंद प्राप्त होगा और जीवन में प्रशान्त मनोदशा के साथ कार्यशील रहने का पथ भी प्राप्त होगा।
कविता में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए इस पुस्तक को प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है यह सभी काव्य-प्रेमियों को रस प्रदान करेगी।
डी.आर.मेहता संस्थापक एवं मुख्य संरक्षक प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर