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जूठी जगनी पुद्गलबाजी, त्यां शुं रहीए राजी?; तन धन यौवन साथ न आवे, आवे न मात पिताजी. आतम.५ लक्ष्मी सत्ताथी शुं थावे, मनमां जोशो विचारी; एक दिन ऊठी जावू अंते, दुनिया सहु विसारी. आतम.६ भलभला पण ऊठी चाल्या, जोने केईक चाले; बिलाडीनी दोटे चडीयो, उंदरडो शुं महाले?. आतम.७ काल झपाटो सहुने वागे, योगी जन जग जागे; बुद्धि सागर आतम अर्थी, रहेजो सहु वैरागे. आतम.८
अध्यात्म सन्झाय स्वप्ना जेवी दुनियादारी, कदी न तारी थनारी; दृष्टि खोलकर देखो हंसा, मिथ्या सब जगकी यारी. स्वप्ना.१ दर्पणमां प्रतिबिंब निहाली, श्वान भ्रांतिथी बहु भस्यो; जूठी माया जूठी काया, चेतन तेमां बहु धस्यो. स्वप्ना.२ निज छाया कूप-जलमां देखी, कूदी कूपे सिंह पड्यो; पर पोतानुं मानी चेतन, चार गतिमां रडवड्यो. स्वप्ना.३ छीपोमा रूपानी बुद्धि, मानी मूरख पस्तायो; जडमां सुखनी बुद्धि धारी, ज्यां त्यां चेतन बहु धायो. स्वप्ना.४ कुटुंब कबीलो मारो मानी, कीधां कर्मो बहु भारी; अंते तारुं थशे न कोई, समज समज मन संसारी. स्वप्ना.५
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