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प्रस्तावना जैन दर्शन में सज्ज्ञाय शब्द महान अर्थ का द्योतक है। सज्ज्ञाय शब्द और स्वाध्याय शब्द में भाषाकीय भेद हैं। निश्चय से तो सज्ज्ञाय (स्वाध्याय का अर्थ स्व अर्थात् आत्म तत्व का अध्याय-अध्ययन-परिचय-परिशीलनअनुप्रेक्षा की प्रकिया के द्वारा परंपरा से स्वकीय तत्व की पूर्ण उपलब्धि ही है।
जब तीरर्थंकर परमात्मा ज्ञानावरणीय कर्म दर्शनावरणीय कर्म मोहनीय कर्म और अंतराय कर्म का संपूणतिया नाश करके कैवल्य लक्ष्मी को प्राप्त करते है तब धर्मदेशना के माध्यम से जीवादि नव तत्व, अनित्यादि बारह भावना, मैत्र्यादि चार भावना, मित्रादि आठ दृष्टि, सम्यकत्वादि आत्म परिणाम तथा मोहविजयी महापुरुषों के आदर्श दृष्टान्त, क्रोधादि कषाय और आहारदि संज्ञा के दुपरिणाम विगेरे पदार्थों को बारह प्रकार की वर्षदा के समक्ष अमोध रुप से प्रस्तुत करते है। उन्ही पदार्थों को पूर्व के महापुरुषों ने मनोहर शब्द संरचना के द्वारा काव्यों में सज्ज्ञाय माला का निमणि किया
महार्षिओं द्वारा बनायी गई सज्ज्ञाय माला को प्रतिदिन चतुर्विधि श्री संघ प्रतिक्रमण के समय मधुर कण्ठ से गायन के द्वारा स्वयं के गले में आरोपण करके निर्जश को स्वामी बनता है। प्रस्तुत सज्ज्ञाय माला जिज्ञासु वर्ग के लिए पूज्यपाद वरम् वागीश राष्ट्रसंत आचार्य देवेश श्री के अन्तेवासी
मुनिराज श्री पद्मरत्नसागरजी म.सा. ने संयोजन और संपादन करके . परोपकार करने के प्रयास किया है। इसमें क्रम आयोजन का कार्य प:श्री नविनभाई जैन ने किया है। एतदर्थ धन्यवाद के पात्र है। आचार्य श्री कैलासागरसूरी ज्ञानमंदिर में कार्यरत केतनभाई शाह तथा संजय गुर्जर ने कंपोझ का कार्य कीया है |
सज्ज्ञाय माला के उपयोग द्वारा आराधक वर्ग आत्म तत्व की उपलब्धि में प्रयत्नशील बने यही मंगलकामना
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