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निन्दा (राग : प्रभात. अथवा. ऊठो चेतन आळस छंडी.) कर्माधीन छे संसारी जीव, निन्दा कोईनी न करशो रे; निन्दा करतां नीचपणुं छे, शिक्षा दिलमां धरजो रे. कर्मा० १ तरतमयोगे दोषी दुनिया, करशो तेवू भरशो रे, निन्दक जन चंडाल समो छे, निन्दाने परिहरशो रे. कर्मा० २ पोतानामां दोष घणां छे, तेने कोई न देखे रे; परनां चांदा खोळे पापी, सद्गुण दृष्टि उवेखे रे. कर्मा० ३ निन्दकनी दृष्टि छे अवळी, परने आळ चढावे रे; पोते सारो परने खोटो, कहेवामां ते फावे रे. कर्मा० ४ त्रियोगे निन्दक जन पापी, परनुं मूंडु धारे रे; बुद्धिसागर सद्गुण दृष्टि, धारी दोष निवारे रे. कर्मा० ५ आतम! क्या करे म्हारं व्हारं.
(राग : सोरठ) आतम! क्या करे मारूं तारुं; स्वप्न सरिखी दुनिया बाजी, प्यारूं छे तुजथी न्यारूं.
आतम!...१ कंचन कामिनी सारूं नठारूं, अंते सर्व अकारूं, भूल करी केम भूले भोळा, वागे मृत्यु नगारूं. आतम!...२
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