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मैथुन पापस्थानकनी सज्झाय पापस्थानक चोथु र्वजीए, दुर्गति मूल अबंभ, जग सवि मुंझ्यो छे एहमां, छांडे तेह अचंभ. रुडं लागे रे ए धुरे, परिणामे अति अति क्रुर; फल किंपाकनी सारिखं, वरजे सज्जन दूर. अधर विद्रुम स्मित पूलडा, कुच फल कठिन विशाल, रामा देखी न राचीये, ए विषवेली रसाल. प्रबल ज्वलित अयपूतली, आलिंगन भलु तंत, नरक दूवार नितंबिनी, जघन सेवन ते दुरंत. दावानल गुणवन तणो, कुल मशीकूर्चक एह, राजधानी मोहरायनी, पातक-कानन मेह. प्रभुताए हरि सारीखो, रुपे मयण अवतार, सीताए रे रावण यथा, छांडो पर नर नार. दश शिर रजमांहे रोळिया, रावण विवश अबंभ, रामे न्याये रे आपणो, रोप्यो जगि जय थंभ. पाप बंधाए रे अतिघणां, सुकृत सकल क्षय जाय, अब्रह्मचारीनुं चिंतव्यु, कदिय सफल नवि थाय. मंत्र फले जगि जस वधे, देव करे रे सानिध, ब्रह्मचर्य धरे जे नरा, ते पामे नवनिध.
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