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भविक जन!, विनय वहो सुखकार. पहेले अध्ययने कह्योजी, उत्तराध्ययन मझार; सघळा गुणमां मूळगोजी, जे जिनशासन सार. भ० २ नाण विनयथी पामीये जी, नाणे दरिसण शुद्ध; चारित्र दरिसणथी हुवे जी, चारित्रथी पुण सिद्ध.
भ०३ गुरुनी आण सदा धरे जी, जाणे गुरुनो भाव; विनयवंत गुरु रागीया जी, ते मुनि सरळस्वभाव. भ०४ कण- कुंडं परिहरी जी, विष्ठाशुं मन राग; गुरुद्रोही ते जाणवा जी, सूअर उपम लाग. भ० ५ कोह्या काननी कुतरी जी, ठाम न पामे रे जेम; शील हीण अकह्यागरा जी, आदर न लहे तेम. भ०६ चंद्र तणी परे उजळी जी, कीरति तेह लहंत; विषय कषाय जीती करीजी, जे नर विनय वहंत. भ० ७ विजय देवगुरु पाटवी जी, श्री विजयसिंह सूरीद; शिष्य उदयवाचक भणे जी, विनय सियल सुखकंद. भ० ८
नारी संग निवारवानी सन्झाय प्रभु साथे जो प्रीत वंछो तो, नारी संग निवारो रे; कपटनी पेटी कामणगारी, निश्चे नरक दुवारो रे. एहनी गत एह ज जाणे, रखे कोई संदेह आणो रे,
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