________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अहंता का वक्र और गोल हाथा था। और, मोह के श्यामल वस्त्र से वह मढी हुई थी। उस पर करुणा का प्रपात पड़ रहा था। किन्तु चारों तरफ बिखर जाता था। में किकर्तव्यमढ बन इधर-उधर झाँक रहा था। तुम्हारी टोह ले रहा था। इतने में अमत सने वेण तुमने कहे : "अरे मुग्ध पागल ! यह क्या कर रहा है? इस प्रकार तेरे रोग-शोक दूर नहीं होंगे ! दु:ख दरिद्रय से त्राण नहीं होगा!" किंतु मैं अडा रहा
और बालहठ पर आरुढ नहीं माना ! करुणा सागर ! आपने समझाने का लाख प्रयत्न किया। पर मैं न माना सो नहीं माना ! समभाव से आप पीछे लौट गये । हाय ! कहीं चले गये, अन्तर्धान हो गये !! क्षणार्ध पश्चात छाता हटा, मैं आपको देखने का प्रयत्न करता हूँ !
किंतु....
करुणामय! कामनगारी आँखों से आप अलोप। सहसा मैं रो पड़ा, क्रंदन कर उठा ! Eि परन्तु अब क्या ? अवसर हाथ से निकल गया।
हे नवकार महान
For Private And Personal Use Only