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४३. विश्व विहार
विलोभनीय मनोहारी नवकार ! सुनसान और खतरनाक मोह-मार्ग के भयंकर मोडों और उबड़-खाबड कंकरीले पथ से भरी पडी गिरि-कंदराओं को लाँघ कर विराट विश्व के विहार हेतु निर्विघ्न बाहर जा सकूँगा? अतिशय मोह ग्रस्त हो, सभी का काम करते-करते, दुनियाँ की भूल-भूलैया में शामिल बुरी तरह फंस गया हूँ। आशा और आकांक्षा से भरे हुए जाने सुख अल्प और दुःख अति, ऐसे संसार सागर में मैं निरंतर तैरता, डूबता और टकराता रहता हूँ। फिर भी जब जब भयंकर तूफानों से कि जर्जरित हो जाता है, तब तुम्हारे चरणों की छत्रछाया में आराम के लिये उडा चला आता हूँ। तब हे दिलवर! विश्व के अपार कोलाहल में भी प्रायः आप ही याद आते हो !
और तब मन ही मन विचार करता हूँ कि कर्म बन्धनों की इन मोहमयी दीवारों को पार कर विश्व विहार के लिये कभी बाहर जा भी सकूँगा?
हे नवकार महान
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